यह वैलेंटाइन वीक की सुनहरी दोपहर है। मैं आज भी हमेशा की तरह मेट्रो के आखिरी डिब्बे में सवार हूं। छुट्टी के दिन यूं ही खुद को तलाशने निकल गया हूं। सोच रहा हूं कि वैलेंटाइन बाबा कैसे दिखते होंगे? उनकी झोली में चॉकलेट और फूल तो होंगे ही। शायद कुछ प्रेम कविताएं भी हों। दिल्ली विश्वविद्यालय स्टेशन पर ट्रेन रुकते ही युवाओं का समूह कोच में सवार हो गया है। कुछ को सीट मिल गई है, लेकिन कई नौजवान अपनी महिला मित्रों के साथ खाली जगह के हिसाब से इधर-उधर खड़े हो गए हैं। इनकी चुहलबाजियां अन्य यात्रियों का ध्यान खींच रही हैं।
लड़कियां इतनी जोर से बात कर रही हैं कि सबको मालूम हो गया है कि ये लोग आज कहां जाने के लिए निकली हैं। इतनी पारदर्शिता तो घरों में भी नहीं दिखाई देती। पति कहां गया मालूम नहीं और मां किस काम से निकली है, बच्चों को नहीं पता। मध्यवर्गीय परिवारों में प्रेम दाल-रोटी की चिंता में कहीं खो गया है। पैसा कमाने की होड़ में पति अपनी पत्नी को भूल गया है तो अपनी महत्त्वकांक्षाओं में उलझी पत्नी अब पति पर पहले जैसा प्रेम नहीं लुटाती। अब इसके जवाब में हरेक के पास अपनी वजह और तर्क हैं।
मैं दरवाजे के एकदम पास वाली सीट पर बैठा हूं। मित्र से वाट्सऐप पर चैट कर रहा हूं। गेट के पास खड़े एक युगल ने मेरा ध्यान खींच लिया है। गोरी-चिट्टी छरहरी युवती अपने मित्र के कंधे पर सिर झुकाए खड़ी है। वह सुबक रही है और ब्वॉयफ्रेंड उसकी पीठ पर थपकी लगा कर दिलासा दे रहा है। युवती ने टी-जींस पहन रखी है। उसके लंबे चमकते बालों में उस समय जुंबिश पैदा हो जाती है, जब उसका दोस्त उसके सिर को हौले से सहला देता है।
तभी मित्र का संदेश आया-कहां पहुंचे? मैंने जवाब दिया-‘सिविल लाइंस।’ मेट्रो अपनी गति से चल रही है। स्टेशन आता, दरवाजा खुलता। यात्री सवार होते, लेकिन इस युगल पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा। भीड़ में बेपरवाह। अपने में मगन। जैसे एकात्म हो गए हों। उफ्फ…! दंपति भी घर-परिवार में इतने ‘क्लोज’ नहीं होते। क्यों? क्या दंपतियों में प्यार कम हो गया है? या मतभेद इतने गहरे हो गए हैं कि पास खड़ा जीवनसाथी भी अजनबी सा लगता है। और एक ये हैं। कोई झिझक ही नहीं। भीड़ में भी भावनाओं का उन्मुक्त प्रदर्शन। मलिनता इनमें नहीं, मेरे मन में है, जो अभी ऐसा सोच रहा हूं।
सच में कितनी बदल गई है युवा पीढ़ी। इन दिनों युवाओं का जोश देखना हो तो मेट्रो में देखिए। उस दिन एक युवती जिस तरह से अपने मित्र से गले लगी, उसे सभी यात्री देखते रह गए थे। पश्चिम की आधुनिक सभ्यता ने इस खास दिन को दिल से अंगीकार किया है। सेंट वैलेंटाइन की कहानी का मर्म समझते हुए उसकी पावनता को भी महत्त्व दिया है। और जब हमारी बारी आती है तो हमारे विचार क्यों संकुचित हो जाते हैं? जैसे अभी मैं इस युगल को देखते हुए हो गया हूं।
पिछले दो दशक में वैलेंटाइन डे को सुनाते हुए मैंने एक भरे-पूरे बाजार को देखा है। अगर इस दिन का बाजारीकरण किया गया, तो इसमें युवाओं का क्या दोष? एक बाजार तो इसे भी ना कर निकल गया मगर अब इसकी जगह नई टेक्नालॉजी ने ले ली है। सभी युवा अपने दोस्तों से सीधे रू-ब-रू हैं, स्मार्टफोन के माध्यम से। अब प्रेम की अपनी दुनिया है, जहां किस का दखल नहीं। जहां उनके सपने और लक्ष्य एक हैं। यहां दोस्ती स्त्री-पुरुष संबंध से ऊपर की चीज है। जैसे युवाओं का यह समूह जो दुनियादारी से बेपरवाह है।
प्रेम सिर्फ स्त्री से नहीं किया जाता। या उससे भी नहीं किया जाता जो साथ पढ़ती है। यह कभी भी हो सकता है, और किसी से भी। किसी रोते हुए बच्चे को हंसा दें तो एक बार के लिए प्यार उससे भी हो जाएगा। भीख मांगने के लिए ठिठुरती सर्दी में फर्श पर बैठी बुजुर्ग महिला की मदद कीजिए। वो जब आशीष देती है, उस मंगलकामना को महसूस कीजिए। आपके दिल में एक स्नेहिल धारा बहती हुई मिलेगी। इस आशीष में भी प्यार छुपा है, जैसे मां के आंचल में होता है।
आज के युवा भी यही संदेश देते हैं- चलो-सब साथ चलो। कोई जीवन में अकेला न रह जाए। उन दोस्तों से प्रेम करो जो गुमसुम अपने में खोए हैं। इस देश से प्रेम करो, जिसने तुम्हें इतने अवसर दिए हैं। इस प्रकृति से प्रेम करो, जिसने हमारे जीवन में कई रंग भरे हैं। प्रेम की सात्विकता को नए अर्थ में समझने की कोशिश करो। ……..मैं दोस्त को मैसेज किए जा रहा हूं। वह बोर हो रही होगी, मगर वो मेरा मैसेज ध्यान से पढ़ रही है। कोई आपकी बात ध्यान से सुनता है, तो लगता है कि वह सच्चा दोस्त है। कोई तो है जो आपकी सुन रहा है। यूं भी आज कौन किसकी सुनता है? मैं अकसर पूछता हूं कि तुमने खाना खा लिया। वह जवाब में दाल-रोटी और सब्जी से सजी थाली की तस्वीर भेज देती है।
तभी कारपोरेट के एक बड़े अधिकारी का फोन आ गया। उनसे थोड़ी चर्चा करता हूं इस मुद्दे पर। और फिर बेसाख्ता मेरे मुंह से निकल जाता है- ‘सर, आप मेरे वैलेंटाइन हैं। आप से जो स्नेह-सम्मान मिलता है, वह कोई अपना ही देगा।’ …सर भावुक हो जाते हैं। कहते हैं, ‘कल जल्दी आओ यार, चाय पर मिलते हैं।’ इस बीच फिर मित्र का मैसेज- ‘कहां खो गए। किससे बात करने लगे। क्या सोच रहे हैं?’ मेट्रो में कविता लिखने बैठ गए हैं क्या। मैं उसे तुरंत कॉल कर मेट्रो का दृश्य बताता हूं और कहता हूं कि एक कविता भी लिख रहा हूं, तो उसका एक लाइन का जवाब है- ‘आप ना, सच में क्रेजी हो गए हैं।’ इस पर मेरा जवाब है- ‘नहीं….दिल्ली क्रेजी हो गई है। देखो ना आज युवाओं में कितना उमंग है। उनका मन कितना निर्मल है। दिल तो हमारा मलिन है, जहां से अच्छी बातें कभी सूझती नहीं।
……..अच्छा ये सब रहने दो, राजीव चौक आ गया। ……फिर मिलते हैं। तुम्हें अपनी आधी-अधूरी कविता भेज रहा हूं… बाय।’ ……. मैं सीट से उठ गया हूं। मेरा स्टेशन आ गया है। वह मेरी कविता पढ़ रही है-
तुम्हारी खामोशियों में
ढूंढता हूं खुद को,
कोई पुल भी तो नहीं
सिवाय शब्दों के
जो हम दोनों को जोड़ते हैं।
तुम कहती हो –
ये बेजुबां इश्क है,
इसे खामोशी से
ढूंढना है तुम्हें….।
मुट्ठी से उछाल कर
देता हूं तुम्हें दुआएं
और ढूंढता हूं
इस बेजुबां इश्क में
खुद को
अपनी शुभकामनाएं लिए।
जानता हूं-
तुम्हारे शब्दों में
कोई और नहीं
वह मीरा है
जो सदियों से
प्रतीक्षारत है,
उस कृष्ण के लिए
जो कभी उसे
मिले ही नहीं,
जिन्हें याद कर वह
गाती रही प्रेम गीत।
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