कुछ नैराश्यपंथी की आलोचना होती है कि हिंदी अपने घर में ही कैद हो गई है और इसकी साम्राज्य विस्तार सीमा ठहर गई है। अतीत के काल खंडों पर हम निष्पक्ष रूप से मनन करें तो मूल्यांकन मर्म हमें जो साक्ष्य मुहैया कराते हैं, उससे स्पष्ट है कि हिंदी की अनंत यात्रा अहर्निश जारी है।

इस यात्रा में कोई दर्शक के रूप में, कोई सहभागी के रूप में तो कोई आलोचक के रूप में भूमिका निभा रहे हैं। विभिन्न विश्व हिंदी सम्मेलनों में इसके विस्तार की नीतियां पारित हुई हैं जिसके कारण हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं की हमजोली भी स्वीकार किया गया है।

आंकड़े गवाह हैं कि अपने देश में करीब सत्रह सौ भाषाएं विद्यमान हैं जो संसार के किसी भी देश में नहीं है। लगभग एक अरब लोग विश्व में हिंदी बोलते हैं, जिसे हम हिंदी के शृंगार और आत्मीयता के बोधस्वरूप देखते हैं।

यहां तक कि फारसी शब्दावली के एक वृहद रूप ने संस्कृत से प्रगति की दिशा प्राप्त किया है, नतीजतन, उसका मूल एवं अपभ्रंश हिंदी भाषा में बिना अवरोध के मान्य हो गया। हालांकि अन्य भाषाओं को हिंदी ने जब समृद्धि प्रदान की है, इसलिए कई भाषाओं की शब्दावली प्रयोग और सहगामिनी सामर्थ्य ने भी हिंदी को बलशाली बनाया है।

हिंदी के विकास पथ की यह मार्मिक देन है कि जरूरत के अनुसार हरेक विषय और भाषा की शब्द-संपदा, चाहे वह अकादमिक हो या प्रशासनिक, हमारे समक्ष विद्यमान है। अफसोस है कि हम इसके बोध भाव से साक्षात्कार करने में ठिठक जाते हैं और इसकी दरिद्रता का रोना रोते हुए अत्यंत सहजता से अंग्रेजी के आंगन में प्रवेश कर जाते हैं।

अपनी अमूल्य भारतीय भाषाओं की गहनता, ग्रहणशीलता, तादात्म्यता और संप्रेषणीयता के विभिन्न आत्मीय आयाम जब हमारे भाषायी संस्कार से रूबरू होंगे तो निश्चित ही हिंदी के हमारे पूर्वज मनीषियों के सपने साकार हो सकेंगे।

आवश्यकता है कि हम जहां भी हों, जिस परिस्थिति में हों, हिंदी की बिंदी मस्तक पर लगाए रखें, चाहे वह पर्यटन क्षेत्र की अंग्रेजी बोलचाल की वह धरा ही क्यों न हो, जहां अपने हिंदुस्तानी जन हिंदी जानते-समझते हुए भी अंग्रेजी बोल से अपने को धन्य कर आत्म प्रवंचित होते हैं। हिंदी की मंगल यात्रा अनवरत जारी है, बस हम अथक रूप से मुस्कुराते हुए चलते रहें, लक्ष्य दूर नहीं है।
’अशोक कुमार, पटना, बिहार

प्रकृति के विरुद्ध

हम सभी जानते हैं कि मनुष्य प्राचीन काल से प्रकृति से छेड़छाड़ करता आया है और अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए वह निरंतर पर्यावरण के साथ खेल रहा है। हालांकि इसका खमियाजा भी उसे कई रूप में उठाना पड़ रहा है। कभी वह किसी महामारी के कुचक्र में घिर जाता है, तो कभी प्राकृतिक आपदाओं की मार सहता है।

इस उथल-पुथल में जो लोग बच जाते हैं, वे भी प्रकृति की अहमियत को समझने की कोशिश नहीं करते। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अगर भविष्य में भी वह प्रकृति से ऐसे ही खेलता रहा या छेड़छाड़ करता रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब चारों तरफ मुश्किलों का अंधकार होगा और मनुष्य को उससे निकलने का रास्ता नहीं सूझेगा। कहने का आशय यह है कि अगर समय रहते प्रकृति का दोहन बंद नहीं किया गया तो इसके भयंकर परिणाम होंगे।

शिडनी शेल्डन ने एक बार कहा था कि ‘यह कोशिश करें कि जब आप पृथ्वी पर आए थे तो फिर यहां से जाने के बाद इसको एक बेहतर स्थान के रूप में छोड़ कर जाएं।’ वैसे भी विकास के नाम पर पृथ्वी से उसकी हरित अस्मिता छीन लेना एक अपराध से कम नहीं है।

मछली को जल से अलग करना, लकड़ी को जंगल से अलग करना, जंगलों को आग के हवाले कर देना, जैव विविधता को विदेशी आक्रांता पादपों के हवाले कर देना, प्रकृति के गुर्दे यानी मरुभूमि को मार देना, उसका डायलिसिस न करना इंसान पिछले कुछ दशकों में सीख गया है। लेकिन उसकी इस सीख हासिल क्या होना है? क्या इसकी मार वह सह सकेगा? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रकृति हर मनुष्य की जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन प्रकृति मनुष्य के लालच को कभी पूरा नहीं कर सकती।’
’जफरुद्दीन, अलीगढ़, उप्र

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