अभिषेक रंजन

दिल्ली की चुनावी चर्चा में शिक्षा केंद्र में है। आम आदमी पार्टी की मानें तो बीते 5 साल में दिल्ली में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत काम हुआ है। इसे शिक्षा क्रांति की भी संज्ञा दे रहे हैं। पार्टी ने अपने रिपोर्ट कार्ड में ‘सबको मिली अच्छी शिक्षा’ के दावे किये हैं एवं मुख्य रूप से शिक्षा बजट के बढ़ने, नए कमरे बनने और बारहवीं के रिजल्ट बेहतर होने को अपनी उपलब्धि बताया है। हालांकि पार्टी ने 2015 के चुनाव से पहले किए अपने सभी वादों का कोई हिसाब-किताब नहीं दिया, जो उसने दिल्ली की जनता से किए थे। यही नहीं, पार्टी गिनती के दो-चार स्कूलों की फोटो दिखाकर यह माहौल बनाने की भी कोशिश कर रही है कि उसने शिक्षा के क्षेत्र में इतिहास रच दिया है। हकीकत क्या है देखिये:

सरकारी स्कूलों को छोड़ प्राइवेट में जा रहे है बच्चे: दिल्ली के बारे में ये कहा जा रहा है कि सरकारी शिक्षा इतनी बेहतर हो गयी कि प्राइवेट स्कूलों को छोड़कर बच्चें सरकारी स्कूलों में आ रहे है। एक खबर भी दिखाई जाती है कि प्राइवेट स्कूलों को छोड़कर 900 बच्चें सरकारी स्कूलों में आ गए। शिक्षा मंत्री सिसोदिया के किए दावे की मानें तो अब तो सरकारी में एडमिशन लेने के लिए लोग रिश्वत देने के लिए भी तैयार हैं, लेकिन सरकारी आंकडें देखें तो पता चलेगा कि बीते 4 वर्षों में ही जहां प्राइवेट में ढाई लाख बच्चे बढ़े, वहीं सरकारी में डेढ़ लाख बच्चे घट गए। 2019 में आई दिल्ली के इकॉनोमिक सर्वे के मुताबिक दिल्ली में 2013-14 में 992 सरकारी स्कूल थे, जहां 16 लाख से अधिक बच्चे पढ़ते थे। 2017-18 तक पिछली सरकारों द्वारा स्वीकृत कुछ नए सरकारी स्कूल बने और स्कूलों की संख्या में 27 का इजाफा हुआ, लेकिन बच्चे घटकर 14 लाख पर आ गए। इसी दौरान 558 प्राइवेट स्कूल बंद हुए, इसके बावजूद प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे 2013-14 के मुकाबले 2017-18 तक आते-आते 2 लाख 64 हजार बढ़ गए।

यहां यह बात ध्यान रखना जरुरी है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में नामांकन और कम रहते अगर अपने स्कूलों में प्राइमरी सेक्शन नही खोलते। 2017 में MCD चुनाव में मिली हार के बाद आप सरकार ने दिल्ली में 300 से ज्यादा स्कूलों में प्राइमरी और नर्सरी सेक्शन खोले। कहा जाता है कि MCD के स्कूलों से राजनीतिक बदले की भावना के साथ यह कार्रवाई की गई, वहीं यह कवायद अपने स्कूलों में घटते हुए नामांकन को रोकने की भी थी। यह उस अघोषित समझौते के खिलाफ भी था, जहां MCD के जिम्मे प्राइमरी शिक्षा और दिल्ली सरकार के अधीन माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा की जिम्मेवारी आपस में बंटी हुई थी। आज इस बदली नीति का ये नतीजा है कि दिल्ली सरकार माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा पर काम करने की सीमा लांघकर 720 स्कूलों में प्राइमरी और नर्सरी कक्षा चला रही है। जाहिर है, जो बच्चें आयेंगे, वे ज्यादातर MCD में ही जाने वाले बच्चें होंगे।

अभी हाल में आई शिक्षा क्षेत्र के मशहूर सर्वे ‘असर’ की रिपोर्ट की मानें तो बच्चियों को सरकारी स्कूलों में, वही लड़कों को प्राइवेट में भेजने का चलन बढ़ा है। लेकिन जब दिल्ली सरकार के स्कूलों को देखते है तो यहां मामला उल्टा है। दिल्ली के गरीब मां-बाप अब अपनी बेटियों को भी अच्छी शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों के बजाए प्राइवेट में भेजना पसंद कर रहे हैं। 2019 में आई दिल्ली के इकॉनोमिक सर्वे की ही रिपोर्ट देखें तो बीते 4 वर्षों में ही सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ने के बावजूद बच्चियों के नामांकन में जहां 33 हजार की कमी आई, वहीं प्राइवेट स्कूलों की संख्या एक चौथाई घटने के बावजूद नामांकित बच्चियों की संख्या में लगभग सवा लाख का इजाफा हुआ है।

इकॉनोमिक सर्वे की ही रिपोर्ट की मानें तो दिल्ली की आबादी जिस रफ़्तार से बढ़ी, उस रफ़्तार से स्कूलों में जाने वाले बच्चें बढ़े तो नहीं, उल्टे घट गए। 2014-15 में दिल्ली के सभी सरकारी, प्राइवेट स्कूलों में 44.10 लाख बच्चे थे। 2018 आते-आते ये घटकर 43 लाख पर आ गए, यानी दिल्ली में आज भी हजारों ऐसे बच्चे हैं, जो स्कूलों से बाहर हैं या फिर ड्रापआउट हो रहे हैं. सवाल उठता है कि जब दिल्ली के सरकारी स्कूलों को सरकार ने बेहतर बना दिया तो बच्चे क्यों कम हो रहे हैं?

लाखों बच्चे हुए 9वीं में फेल: दिल्ली में आज सबसे बड़ा मुद्दा है कि जब यहां शिक्षा क्रांति हुई तो लगभग आधे बच्चे 9वीं में हर साल क्यों फेल हो रहे हैं? ये तो रोचक बात है कि कोई सभी बच्चों को वर्ल्ड क्लास शिक्षा देने के दावे भी करे और भारी संख्या में बच्चों को फेल करके स्कूलों से भी बाहर निकाल दे। ऐसी हालत यूपी बिहार में भी नहीं है, जिसकी तुलना दिल्ली के नेता खूब करते हैं। रिजल्ट सुधारने की कवायद में बीते 2-3 दशकों में इतने बच्चे कहीं भी 9वीं में जान-बूझकर फेल नहीं किए गए। किसी राज्य की छोडिये, देश के किसी भी प्राइवेट स्कूल में भी 9वीं में आधे बच्चे नहीं निकाले जाते। सूचना के अधिकार से मिले आंकड़ों के मुताबिक तो बीते 5 सालों में 9वीं में पढ़ने वाले लगभग आधे यानी 4 लाख से अधिक बच्चें फेल हुए, वहीं 11वीं में एक तिहाई यानी एक लाख से अधिक बच्चों को फेल किया गया। ये सब गरीब तबके के बच्चे थे।

पास फेल अपनी जगह है। सबसे खतरनाक है, 9वीं या 11वीं में फेल करने के बाद हर साल हजारों बच्चों का ड्राप आउट होना। पिछले 5 साल में बड़ी संख्या में बच्चें 9वीं के बाद ड्राप आउट हुए। 2017 में सवा लाख बच्चें 9वीं में फेल हुए। जहां 35 हजार बच्चे ड्राप आउट हो गए, 67 हजार गरीब बच्चों को स्कूलों से बाहर कर पत्राचार में भेज दिया, जहां न तो नियमित पढ़ाई होती है, न ही कोई स्थायी शिक्षक हैं। प्रजा फाउंडेशन की रिपोर्ट की मानें तो बच्चों पर ध्यान नहीं देने से हालत ये रही कि महज 2% बच्चे ही 10वीं की परीक्षा पास कर सके। आज ये बच्चे बाल श्रम ही नहीं, पढ़ाई से दूर अपने जीवन में संघर्ष कर रहे हैं। बाल अपराध की घटनाओं में हो रही बढ़ोतरी का कनेक्शन स्कूलों से भारी संख्या में हो रहे ड्राप आउट से जोड़ कर देखें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

फेल बच्चों को दोबारा नहीं मिल रहा नामांकन: 9वीं, 11वीं में बड़ी संख्या में फेल करने के बाद बच्चों को दोबारा स्कूल में न आने देने की भी नीति दिल्ली में स्कूली शिक्षा से बच्चों को वंचित कर रही है। वर्ष 2015-2016 की परीक्षा में 9वीं में 1 लाख 32 हजार बच्चों को फेल किया गया। 2016- 2017 में एक लाख 16 हजार से अधिक बच्चे फेल हुए, उनका कोई हिसाब किताब नहीं है। बात केवल 2017-2018 की ही करें तो क्लास 9वीं से 12वीं के दो तिहाई बच्चों को एडमिशन नहीं दिया गया। सबसे दुखद था कि 10वीं और 12वीं के बोर्ड में फेल हुए 91 फीसदी बच्चों को दोबारा एडमिशन नहीं देना। 155436 बच्चों में से 102854 बच्चों को एडमिशन न देकर स्कूलों से बाहर निकाल दिया. हालात ये हैं कि फेल हुए बच्चों को दोबारा एडमिशन नहीं देने पर बच्चे बार-बार कोर्ट जा रहे हैं. फिर भी ये प्रक्रिया बदस्तूर जारी है।

12वीं की परीक्षा में घटे बच्चे : दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने गृह मंत्री अमित शाह के एक बयान का जवाब देने के लिए 26 जनवरी को एक विडियो बनाया और कहा कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों का रिजल्ट 96 फीसदी है। 96 फीसदी रिजल्ट केवल 12वीं की परीक्षा के थे, जिसमें लगभग सवा लाख बच्चे ही बैठे थे, लेकिन केजरीवाल जी ने इसे जबरदस्ती 16 लाख बच्चों की मेहनत का नतीजा बताया। बारहवीं के परिणाम में दिल्ली पहले भी बेहतर करता रहा है। 2007-08 से लेकर 2014 तक लगातार 85 फीसदी से अधिक रिजल्ट आया, लेकिन आज जब रिजल्ट की बात होती है तो ये बताया जाता है कि पहली बार सरकारी स्कूलों ने प्राइवेट को पछाड़ा है। ये पूरी तरह गलत है। 2009 और 2010 में भी दिल्ली के सरकारी स्कूलों ने प्राइवेट को पछाड़ा था।

2005 में दिल्ली के सरकारी स्कूलों के बच्चें 12वीं में 13 अंकों से पीछे चल रहे थे, 2009 में पछाड़ा और अब आगे चल रहे हैं। लेकिन 12 वीं के रिजल्ट को बच्चों और शिक्षकों के मेहनत की बजाए अपनी सरकार की उपलब्धि केजरीवाल जी बताते हैं, वे ये बात क्यों नहीं बताते हैं कि 12वीं की परीक्षा में बैठने वाले बच्चे हर साल घट रहे हैं। 2005 से लेकर 2014 तक दिल्ली में 12वीं में बैठने वाले बच्चे बढ़कर 60570 से 166257 हो गए। केजरीवाल सरकार आने के बाद लगातार घटते-घटते यह 112826 पर आ गया. 4 साल में ही 54 हजार बच्चें कम हो गए। दिल्ली की आबादी तो नहीं घटी, फिर बच्चे कम क्यों हुए? क्या इसलिए कि बड़ी संख्या में बच्चें 9वी में फेल करके बाहर निकाले जा रहे हैं।

10वीं का रिजल्ट सबसे ख़राब: 12वीं के रिजल्ट पर दिल्ली सरकार और आम0 आदमी पार्टी के नेता खूब अपनी पीठ थपथापाते हैं, लेकिन 10 वीं के रिजल्ट पर कोई चर्चा भी नही करते. क्यों? क्योंकि 10वीं का रिजल्ट दिल्ली में केवल 71 फीसदी है। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 10वीं का रिजल्ट आज यूपी/बिहार से भी कम है, जो किसी समय देश भर में सबसे अधिक हुआ करता था। 13 साल पहले यानी 2006-07 में दिल्ली का पास प्रतिशत 77.12 फीसदी था। 2013 में तो दिल्ली के सरकारी स्कूलों के बच्चों ने प्राइवेट को पछाड़ा ही नही था, बल्कि बेहतर रिजल्ट का कीर्तिमान स्थापित किया था। उस वर्ष 99.46 फीसदी बच्चे 10वीं में पास हुए थे।

2015 में जबसे आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है, हर साल रिजल्ट ख़राब होता चला गया। 2015 में 98 फीसदी से घटकर 2017 में 92 फीसदी, और उसके बाद सीधे 2018 में घटकर 68 फीसदी हो गया। 12वीं की तरह 10वीं में भी बच्चे कम हो रहे हैं। 2015 में एक लाख 80 हजार बच्चे परीक्षा में बैठे थे, 2018 में बच्चों की संख्या घटकर एक लाख 36 हजार पर पहुंच गयी। रिजल्ट का सारा खेल देखकर लगता है कि सरकार बच्चों को फेल करके रिजल्ट सुधारने और बच्चों की सफलता का श्रेय खुद लूटने में लगी है।

साइंस, गणित पर नहीं है ध्यान, बातें वैज्ञानिक सोच की: दिल्ली के शिक्षा मंत्री वैज्ञानिक सोच विकसित करने के खूब दावे करते हैं, लेकिन दिल्ली के गरीब के बच्चों को साइंस की पढ़ाई नहीं करने दे रहे हैं. दुनिया जब साइंस एंड टेक्नोलॉजी की बात कर रही है, आज दिल्ली के 30 फीसदी स्कूलों में भी साइंस की पढ़ाई नहीं होती है. आईआईटियन सीएम के राज में साइंस का ये हाल है कि हर साल साइंस लेकर परीक्षा में बैठने वाले औसत बच्चों की संख्या कम हो रही है. बीते दो सालों का आंकड़ा देखें तो दिल्ली के केवल 7 फीसदी बच्चे साइंस लेकर पढ़ रहे हैं। दिल्ली की सरकार नही चाहती कि गरीब के बच्चें साइंटिस्ट, डॉक्टर, इंजिनियर बनें? अगर हां तो ऐसी स्थिति क्यों?

दिल्ली में गणित की पढ़ाई का भी बुरा हाल है। 2019 में बारहवीं की परीक्षा में गणित विषय लेकर बैठे बच्चों की संख्या केवल केवल 15 फीसदी थी। 10 वीं में पिछले साल एक विषय में फेल होने वाले दो तिहाई बच्चे गणित में फेल हुए थे। 10वीं में बच्चों को गणित पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने के बजाए जबरदस्ती बच्चों को बेसिक मैथ लेकर परीक्षा में बैठने के लिए सरकार द्वारा कहा जा रहा है, जिसे चुनने वाले विद्यार्थी आगे गणित नही पढ़ पायेंगे। 2020 की 10वीं की परीक्षा में दिल्ली के सरकारी स्कूलों के 73 फीसदी बच्चें बेसिक मैथ लेकर परीक्षा में बैठेंगे, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर महज 30 फीसदी बच्चों ने बेसिक मैथ चुना है।

केवल मीडिया में सुर्खियां बना बजट, पैसे किये आधे खर्च:
दिल्ली के बजट की चर्चा खूब होती है। आम आदमी पार्टी की मानें तो ऐसा पहली बार हुआ जब किसी राज्य ने एक चौथाई बजट शिक्षा के लिए आवंटित किये। कई बार वे इसकी तुलना एशिया, यूरोप के देशों से करते नजर आते हैं। ये अच्छी बात है कि शिक्षा पर दिल्ली में पैसे खर्च हो रहे हैं, लेकिन तथ्यों की गलत तरीके से प्रस्तुति और इसकी तुलना देश-दुनिया से करना अतिरेक है। बात केवल देश की ही करें तो दिल्ली एक केन्द्रशासित प्रदेश है, जिसके पास करने को बेहद कम काम है, लेकिन राजस्व के साधन अधिक हैं। पैसे के मामले में दिल्ली देश के सभी राज्य व केन्द्रशासित प्रदेशों की सूची में हमेशा टॉप-10 से 12 के बीच ही रहा है।

जब आपको केवल एक हजार स्कूल चलाने हों और बजट करोड़ों में हो तो स्वाभाविक है उसका असर स्कूल की बिल्डिंगों पर दिखना। अगर एक चौथाई बजट की ही बात करें तो दिल्ली के अलावा कई छोटे बड़े राज्य हैं, जिन्होंने अपनी जरूरतों के हिसाब से 20 से 30 फीसदी तक का हिस्सा शिक्षा के लिए अपने बजट में रखा है। बिहार, असम, मेघालय इसमें शामिल हैं। बजट भले देखने में तीन गुना लगता हो, दिल्ली आज भी अपने कुल सकल घरेलू उत्पाद का 2 फीसदी से भी कम पैसे खर्च करता है। यानी आर्थिक क्षमता भले बढ़ गयी हो, दिल्ली के पास जितने पैसे हैं, उस हिसाब से खर्च नहीं हो रहा शिक्षा पर।

शायद यही वजह है कि नए कॉलेज व नए स्कूल बनाने, साइंस, कंप्यूटर आदि की पढाई पर दिल्ली का ध्यान नहीं है। इन सब तथ्यों के बावजूद यह देखना सुखद है कि दिल्ली का बजट आप सरकार के दौरान लगातार बढ़ा, बस खर्च नही हुआ। दिल्ली विधानसभा में सदन के पटल पर शिक्षा का बजट शिक्षा मंत्री द्वारा कुछ और बताया जाता रहा, बजट के बाद सुर्खियां बटोरकर बाद में उसे कम कर दिया जाता रहा और जो बचा उन पैसों को भी कभी पूरा खर्च नहीं किया गया। पिछले साल यानी 2018-19 में बजट में शिक्षा के लिए आवंटित 55 फीसदी पैसे खर्च नहीं किये। इस साल अब तक 68 फीसदी पैसे वैसे ही रखे हुए हैं। स्कूली शिक्षा हो, या उच्च शिक्षा, किसी के लिए भी जो बजट में राशि आवंटित की गई पूरी खर्च नहीं हुई। किशोरी योजना तक के पैसे खर्च नहीं हुए. यह योजना बेटियों के हितों को ध्यान में रखते हुए चलाई गयी थी। 2017-18 के ही उपलब्ध आंकड़ों को देखें तो किशोरी योजना के मद का 20 फीसदी भी खर्च नहीं हुआ।

वादे किये 500 नए स्कूल के, स्वीकृत किये केवल एक: दिल्ली के हर कोने में स्कूलों की जरूरत है। 2015 के चुनाव से पहले दिल्ली की जरूरत देखकर AAP ने 500 नए स्कूल खोलने के वादे किये थे। जनता ने भरोसा कर वोट भी दिया। उन्हें भरोसा था कि नए स्कूल खुलेंगे तो गरीब के बच्चों को पढ़ने का मौका मिलेगा। जब सरकार बनी, 67 विधायक बने लेकिन 5 साल बीत गए, 500 तो दूर की बात रही, 67 स्कूल भी नहीं खुले। पुरानी सरकारों ने जो नए स्कूल बनाने की पहल शुरू की थी, उसे ही बड़ी मुश्किल से पूरा किया गया। RTI से मिली जानकारी बताती है कि 1 अप्रैल 2015 से 31 मार्च 2019 तक केजरीवाल सरकार ने केवल 1 स्कूल स्वीकृत किया। वादा 500 का, काम की पहल केवल एक के लिए। सरकार से जुड़े लोग अभी दावे कर रहे हैं कि 20 हजार कमरे बनवा दिए जो कि 500 स्कूल के बराबर हैं। इस दावे पर कौन भरोसा करेगा! दिल्ली की जनता पूछ रही है- जब नए शिक्षक बहाल ही नहीं किए तो नए बने कमरों में क्या भूत पढ़ाएंगे?

गिनती के स्कूलों में ही सुविधाएं: बीते 5 सालों में 2-4 स्कूलों में स्विमिंग पूल, जिम बनवाकर, गिनती के स्कूलों में सारी सुविधाएं भर दी गईं. अच्छी बात है। दिल्ली के बच्चे ही उसका लाभ उठाएंगे, लेकिन सवाल है 500 नए स्कूलों का क्या हुआ? 2-4 में काम किये, मॉडल स्कूल प्रोजेक्ट को भी जोड़ दें तो महज 5 फीसदी स्कूलों में काम हुआ, बाकी के बचे 95 फीसदी स्कूलों को थोड़ी बहुत सुविधाएं देकर वैसे ही छोड़ दिया गया। उदाहरण के लिए शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया के विधानसभा क्षेत्र खिचड़ीपुर में बने एक्सिलेंस स्कूल में 852 बच्चे हैं, लेकिन पढ़ाने वाले शिक्षक 57 हैं। वहां दुनिया भर की सुविधाएं हैं।

सुविधाएं हटा भी दी जाएं, कल्पना करना मुश्किल है कि शिक्षक के अभाव में पढ़ाई हो रही होगी। लेकिन अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट कोंडली के सर्वोदय कन्या विद्यालय (जीजाबाई) में 3474 बच्चों पर केवल 81 शिक्षक हैं। सुल्तानपुरी के सर्वोदय कन्या विद्यालय में 4240 बच्चों पर महज 67 शिक्षक हैं। त्रिलोकपुरी के न्यू अशोक नगर स्थित सर्वोदय कन्या विद्यालय में 3556 बच्चों पर महज 80 शिक्षक उपलब्ध हैं। यही हाल सैकड़ों स्कूलों का हैं। जब दिल्ली के सारे बच्चे एक जैसे थे, तो भेदभाव क्यों? सैंपल दिखाकर सबका बिल फाड़ना गलत नहीं है?

शिक्षकों के हजारों पद खाली, स्कूल हैं नेतृत्व विहीन: दिल्ली के दो तिहाई स्कूलों में प्रिंसिपल के पोस्ट खाली हैं। ये स्कूल वाईस प्रिंसिपल आधे अधूरे पावर के साथ चला रहे हैं। दिल्ली सरकार के खुद के आंकड़े बताते हैं कि 2019 तक शिक्षा विभाग में 45% पद खाली थे। तब तक 77305 स्वीकृत पदों में 34970 पद खाली थे। नई नियुक्ति कहां हुई? डायरेक्टरेट ऑफ़ एजुकेशन के आंकड़े के मुताबिक दिल्ली में शिक्षकों के 66128 पद स्वीकृत हैं, जिनमें 29430 पद खाली हैं। आज दिल्ली के स्कूलों में लगभग आधे शिक्षक यानी 34211 रेगुलर टीचर पढ़ा रहे हैं, वहीं 20129 गेस्ट टीचर हैं। साइंस, मैथ, कंप्यूटर पढ़ाने के लिए भी पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं। बिना शिक्षक/प्रिंसिपल के कौन सा शिक्षा मॉडल बना है, ये आश्चर्य का विषय नहीं है? स्थायी शिक्षक की बात छोड़िये, खाली पड़े पदों पर गेस्ट टीचरों की भी बहाली नहीं हो सकी। जब बड़ी संख्या में शिक्षकों के पद खाली छोड़ दिए गए हों तो दिल्ली के बच्चों को अच्छी शिक्षा पहुंचाने की नियत पर शक होना लाजिमी है।

पंजाबी, उर्दू का भी है बुरा हाल: दिल्ली में पंजाबी बोलने समझने वाले पंजाबी समुदाय के लाखों लोग रहते हैं। दिल्ली की दूसरी आधिकारिक भाषा भी पंजाबी ही है। 2017 में जब पंजाब में चुनाव होने वाले थे तो केजरीवाल जी का पंजाबी प्रेम अचानक से जाग उठा था। हर स्कूल में पंजाबी शिक्षक बहाल करने का दावा करते हुए एक पेज का विज्ञापन देश भर के अखबारों में छपवाए थे। लेकिन पंजाबी भाषा का हाल ये है कि RTI से प्राप्त सूचना के मुताबिक जुलाई, 2019 तक पंजाबी पढ़ाने के लिए दिल्ली सरकार के स्कूलों में 1,024 शिक्षकों के स्वीकृत पदों पर महज 233 शिक्षक नियुक्त थे।

इनमें भी 111 स्थाई और 122 गेस्ट टीचर हैं। बाकी 791 यानी दो तिहाई से ज्यादा पद आज भी खाली हैं। इन शिक्षकों में भी 75 शिक्षक पंजाबी अकादमी के हैं, जिसे वे भेजकर दिल्ली के स्कूलों में पंजाबी पढ़वा रहे हैं। शिक्षक बहाली का जो काम सरकार को करना चाहिए, वह काम पंजाबी समुदाय कर रहा है। जब शिक्षक ही नहीं हैं तो पंजाबी भला बच्चे पढ़ें भी कैसे! 2019 में आयोजित 12वीं की परीक्षा में 129917 बच्चे परीक्षा देने बैठे थे। इनमें पंजाबी विषय के केवल 486 बच्चे थे यानी 0.37 फीसदी बच्चे। 2019 में आयोजित 10वीं की परीक्षा 166167 बच्चो ने दी। इनमें पंजाबी विषय के केवल केवल 3677 बच्चे थे यानी केवल 2.21 फीसदी.

पंजाबी जैसा ही हाल उर्दू का भी है। मुस्लिम हितैषी होने का दावा करते केजरीवाल हमेशा दिख जाते हैं, लेकिन बात जब शिक्षा की हो, उर्दू की हो तो फिसड्डी साबित हो जाते हैं। दिल्ली में उर्दू पढ़ाने के लिए TGT उर्दू के 1024 स्वीकृत पदों में 628 खाली हैं। रेगुलर टीचर केवल 81 हैं, वहीं दो तिहाई से अधिक शिक्षक यानी 315 गेस्ट टीचर हैं। उर्दू के व्याख्याता पद की बात करें तो 54 स्वीकृत पदों में से 25 खाली हैं। पढ़ाने वाले 27 शिक्षक गेस्ट टीचर हैं. शिक्षकों का अभाव बच्चों की पढ़ाई पर भी असर डाल रहा है। 2019 में 12 वीं की परीक्षा में उर्दू विषय के केवल 2252 बच्चे बैठे थे। औसत देखें तो परीक्षा में बैठने वाले कुल विद्यार्थियों का यह महज 1.35 फीसद है जो कि 2018 के मुकाबले कम ही था। 2018 में 12वीं की परीक्षा में उर्दू विषय लेकर परीक्षा में बैठने वाले कुल विद्यार्थियों की संख्या 1.58 फीसदी थी।

कंप्यूटर शिक्षा भी है उपेक्षित: दिल्ली में आज भी सभी स्कूलों में बच्चों को कंप्यूटर की पढ़ाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है। दिल्ली के स्कूलों में कंप्यूटर लेकर पढ़ने और 12वीं की परीक्षा कंप्यूटर साइंस विषय लेकर देने वाले बच्चों की संख्या 1 फीसदी से भी कम है। देश की राजधानी में कंप्यूटर साइंस का ये हाल है कि पिछ्ले साल लगभग सवा लाख बच्चे 12वीं की परीक्षा में बैठे, जिनमें कंप्यूटर साइंस का पेपर महज हजार बच्चों ने चुना। कंप्यूटर साइंस पढ़ाने के लिए शिक्षक भी नहीं हैं। व्याख्याता (लेक्चरर) के 869 पद स्वीकृत हैं, केवल 45 शिक्षक पढ़ा रहे हैं। इनमें से एक भी लेक्चरर स्थायी नहीं है। TGT कंप्यूटर साइंस के 2026 पद स्वीकृत हैं, केवल 637 पद भरे हैं।

दिल्ली में केवल 1030 स्कूल हैं। इन स्कूलों में लाखों बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेवारी 700 से भी कम शिक्षकों के पास हो तो कंप्यूटर शिक्षा का हाल बखूबी समझ में आ जाता है। दुनिया जब तकनीकी के युग में प्रवेश कर रही हो, दिल्ली का ये हाल देखना दुखद है। खासकर तब जब ढेर सारा बजट हो, पिछ्ली सरकारों ने दिल्ली के 90 फीसदी स्कूलो तक कंप्यूटर शिक्षा की पहुंच बना दी हो। क्या वर्ल्ड क्लास शिक्षा मॉडल में तकनीकी शिक्षा नहीं आती है?

दिल्ली की शिक्षा से जुड़े कई और मसले हैं, जिनपर कहीं चर्चा नहीं होती। सारी बातों का लब्बो-लुआब यही है कि दिल्ली की शिक्षा क्रांति में दिखावे अधिक हैं. असलियत में न तो नामांकन बढ़े, न रिजल्ट सुधरा, न सीखने के स्तर में सुधार हुआ। आखिरी के डेढ़ सालों में जो प्रयोग हुए, वे महज खेल-तमाशे और त्यागराज स्टेडियम में नियमित होने वाले जलसे बनकर रह गए। वैसे समय में जब भारी संख्या में बच्चे फेल हो रहे हों, स्कूली शिक्षा से वंचित किए जा रहे बच्चे और उनके परिजन भी सवाल पूछ रहे हैं कि शिक्षा क्रांति के बावजूद उनके बच्चे स्कूलों में क्यों नहीं हैं? अब नई सरकार सीखने-सिखाने वाले लोगों पर ध्यान देगी, यही उम्मीद की जा सकती है।

(लेखक अभिषेक रंजन ने दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की है, गांधी फेलो रहे हैं और बीते 7 वर्षों से स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं)

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