युवाल नोहा हरारी ने अपनी नामी किताब ‘सेपियंस’ में दस हजार साल पहले हुई खेती की क्रांति का जिक्र किया है। मध्य एशिया की जंगली घास गेहूं को जब इंसान ने उगाना शुरू किया तो इसने इंसान पर अपनी चाहतें लादनी शुरू की। चट्टानी इलाकों से इस घास को परहेज था, तो इसे उगाने के लिए धरती को समतल करना पड़ा। इसे दूसरों से अपनी जमीन, पानी, दूसरे पेड़-पौधों से खाने का बंटवारा नापसंद था तो इसे औरों से अलग रखने के लिए इंसान को दिन-रात खपना पड़ा। गेहूं बीमार होता, उस पर कीड़ों और टिड्यिों का हमला हो जाता तो उसका खास खयाल रखने के लिए तारबंदी करनी पड़ी, रखवाली करनी पड़ी। गेहूं को प्यास ज्यादा लगती थी तो पानी और खाद का ज्यादा इंतजाम भी करना पड़ा। पर बदले में इसने इंसान को बेहतर ‘डाइट’ तक नहीं दी।
इंसान हर तरह के खाने के लिए बना था और इस कृषि क्रांति से पहले अनाज हमारे खाने का छोटा सा हिस्सा हुआ करता था। हरारी बुनियादी बात ये कहते हैं कि ‘क्रांतिकारी प्रचलन’ के अनाज के भरोसे हो चुके हमारे भोजन में अब लवण और विटामिन की कमी तो है ही, इनके पचने में भी मुश्किल है। दांतों और मसूड़ों के लिए भी यह खासा नुकसानदेह है।
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