भारतीय वैज्ञानिकों ने बी.1.617 को सबसे पहले महाराष्ट्र से अक्तूबर 2020 में लिए कुछ नमूनों में पकड़ा था। भारतीय सार्स-कोव-2 जीनोम अनुक्रमण संघ (इंसाकॉग) ने जनवरी, 2021 में सक्रियता बढ़ाई और सामने आया कि महाराष्ट्र में बढ़ते मामलों के पीछे बी.1.617 ही जिम्मेदार है।

पुणे के राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान के मुताबिक 15 फरवरी तक महाराष्ट्र में 60 फीसद मामलों के लिए बी.1.617 ही जिम्मेदार था। इसके बाद इसके उप-स्वरूप सामने आते चले गए। राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान के तीन मई को किए गए अध्ययन में दावा किया कि कोरोना विषाणु के बी.1.617 स्वरूप ने स्पाइक प्रोटीन में आठ बदलाव किए हैं। इन स्पाइक से ही विषाणु इंसान के शरीर के संपर्क में आता है। इसमें दो बदलाव ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीकी स्वरूप जैसे थे। वहीं, एक बदलाव ब्राजील स्वरूप जैसा था, जो विषाणु को मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता को चकमा देने में मदद करता है। अगले ही दिन जर्मनी की एक टीम ने भी अपने अध्ययन में इस दावे का समर्थन किया।

विशेषज्ञों के मुताबिक विषाणु में बदलाव कोई नई बात नहीं है। विषाणु लंबे समय तक जीवित रहने और ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्रभावित करने के लिए जीनोम में बदलाव करते हैं। ऐसे ही बदलाव कोरोना विषाणु में भी हो रहे हैं। विषाणु जितना ज्यादा लोगों को संक्रमित करनेगा उसमें उतने ही अधिक बदलाव होते जाएंगे। इससे नए और बदले रूप में विषाणु सामने आता है, जिसे विषाणु का नया स्वरूप कहते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की नई रिपोर्ट में कहा गया है कि विषाणु जितने समय तक हमारे बीच रहेगा, उतना ही उसके गंभीर स्वरूप सामने आने की आशंका बनी रहेगी। अगर इस विषाणु ने जानवरों को संक्रमित किया और ज्यादा खतरनाक स्वरूप बनते चले गए तो इस महामारी को रोकना बहुत मुश्किल हो सकता है।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में हुए अध्ययन में भारत में मिले कोरोना विषाणु के स्वरूप फाइजर के टीके से विकसित हुई प्रतिरक्षी क्षमता से बचने में कामयाब रहा है। एक अन्य अध्ययन में दिल्ली में फिर से संक्रमित हुए डॉक्टरों में विषाणु का यह स्वरूप मिला है। इन डॉक्टरों ने तीन-चार महीने पहले कोवीशील्ड की खुराक ली थी।



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