साल 2005 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद ‘कोटा के भीतर कोटा’ पर विचार तैयार हुआ था, जिसे असंवैधानिक बताते हुए रोक लगा दी गई थी। गुरुवार (27 अगस्त, 2020) को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने उसी कानूनी बहस को फिर से शुरू कर दिया है। इस बार सुप्रीम कोर्ट चाहती है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण कोटे को उप-वर्गीकरण यानी ‘कोटा के भीतर कोटा’ पर दोबारा विचार हो। इस विचार के आधार पर एससी और एसटी की उन जातियों तक शैक्षणिक और रोजगार संबंधी लाभ पहुंचाना है, जिनके पास आरक्षण तो है लेकिन पहुंच नही रहा। अनुसूचित जातियों में ऐसी जातियों की पहचान करके उन्हें आगे बढ़ाने की प्रक्रिया को ‘कोटा में कोटा’ में कहा जा सकता है।
दरअसल, आंध्र प्रदेश में एससी सूची के 57 नए उप-वर्गें, पंजाब में बाल्मीकि और मजहबी सिख समूह के लोग, तमिलनाडु में अरुनधतियार जाति और बिहार समेत अन्य राज्यों में कई ऐसी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियां हैं जिन्हें कोटा के अंदर कोटा दिया था। अरुनधियार जाति की जनसंख्या (एससी के भीतर) 16 प्रतिशत है, लेकिन राज्य सरकार की नौकरियों में 5 % तक की हिस्सेदारी सीमित है। आज आरक्षण प्राप्त कुछ जातियां आगे बढ़ गई हैं और बहुत सी बेहद पिछड़ी हैं। केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2018-19 के अनुसार, देश में 1,263 एससी जातियां थीं। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, अंडमान निकोबार द्वीप और लक्षद्वीप में किसी भी जाति को अनुसूचित जाति में शामिल नहीं किया गया है।
2007 में बिहार में महादलित आयोग का गठन करके अनुसूचित जातियों के अंदर पिछड़ी जातियों की पहचान की जिम्मेदारी दी थी। तमिलनाडु में अरुंधत्यार जाति को एससी कोटा के अंदर 3 % कोटा दिया गया था। ऐसी ही आंध्रप्रदेश में 57 एससी जातियों को सब ग्रुप में बांटा और उसे एससी कोटा के भीतर 15% कोटा शिक्षण संस्थानों में दिया गया था। अब सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की सविंधान पीठ ने पिछड़ी जातियों की भलाई के लिए आरक्षण कोटे के उप-वर्गीकरण पर विचार करने के लिए चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय पीठ मामले की सुनवाई करके फैसला देगी। उम्मीद है फैसले के बाद देश के कई राज्यों में पिछड़ी जातियों के उन लोगों को शिक्षा और नौकरी का लाभ मिल सकेगा।
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